यहां गूंजते हैं स्त्रियों की मुक्ति के स्वर,
बे-परदा, बे-शरम,जो बनाती है अपनी राह, कंकड़-पत्थर जोड़ जोड़,जो टूटती है
तो फिर खुद को समेटती है, जो दिन में भी सपने देखती हैं और रातों को भी बेधड़क सड़कों पर निकल घूमना चाहती हैं, अपना अधिकार मांगती हैं। जो पुकारती है, सब लड़कियों को, कि दोस्तों जियो अपनी तरह, जियो ज़िंदगी की तरह
4 comments:
बहुत सामयिक चित्र धन्यवाद.
रामराम.
इस से भी ज्यादा हरियाली है हमारे यहां, भारत मै भी हो सकती है, बस हमे अपनी सोच बदलनी पडेगी.भगवान की बनाई दुनिया से प्यार करे तब.
very beautiful...harapan aur iski andar tak thandak de rahi hai...!!
इष्ट मित्रों एवम कुटुंब जनों सहित आपको दशहरे की घणी रामराम.
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