तेरे वादे पे जिए हम, ये तू जान भूल जाना
शेर तो जनाब मिर्जा ग़ालिब का है। सभी जानते हैं और जो लिखने जा रही हूं वो परसाई साहब की पोटली में से है। चुनाव की बहार है, हरिशंकर परसाई की "आवारा भीड़ के खतरे" किताब के एक चैप्टर पर नज़र चली गई। उससे कुछ लाइनें उधार ले पोस्ट कर रही हूं। पढ़नेवाले को पैसा वसूल की गारंटी। परसाई साहब हैं भई।
शेर फिर से नोश फरमाएं...
तेरे वादे पे जिए हम, ये तू जान भूल जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर एतबार होता
मेरी जान, तू ये समझती है कि तेरे वादे की आशा पर हम जीते रहे तो ये गलत है। अगर तेरे वादे पर हमें भरोसा होता तो ख़ुशी से मर जाते।
आम भारतीय जो ग़रीबी में, ग़रीबी की रेखा पर, ग़रीबी की रेखा के नीचे है, वह इसलिए जी रहा है कि उसे विभिन्न रंगों की सरकारों के वादों पर भरोसा नहीं है। भरोसा हो जाय तो वह ख़ुशी से मर जाए। ये आदमी अविश्वास, निराशा और साथ ही जिजीविषा खाकर जीता है। आधी सदी का अभ्यास हो गया है इसलिए- "दर्द का हद से गुजर जाना है दवा हो जाना।"
उसके भले की हर घोषणा पर, कार्यक्रम पर वह खिन्न होकर कहता है- ऐसा तो ये कहते ही रहते हैं। होता-वोता कुछ नहीं। इतने सालों से देख रहे हैं। और फिर जीने लगता है।
इसी लेख में कुछ पैरा आगे का एक अंश
ये आदमी संसद भवन देखता है। विधानसभा भवन देखता है। आलीशान बंगले देखता है। बढ़िया कारें देखता है। इसमें उसकी इतनी ही हिस्सेदारी है कि उसने मत दे दिया। इसके बाद उसकी कोई हिस्सेदारी नहीं रही। वह सिर्फ देखता है। जब प्रिंस ऑफ वेल्स दिल्ली आए थे, तब दरबार भरा था। बढ़िया कपड़े पहने राजा, नवाब। हीरे जवाहर से दमकते हुए। बड़े-बड़े अफसर। बड़े-बड़े सेनापति तमगे लगाए। राजभक्त लोग रायबहादुर, राय साहब, खान बहादुर। फानूस रोशनी बिखेरते। अकबर इलाहाबादी ने लंबी नज्म में ये सब लिखा है। अंत में लिखा है-
सागर उनका साकी उनका
आंखें अपनी बाकी उनका
15 comments:
सागर उनका साकी उनका
आंखें अपनी बाकी उनका
बहुत बढ़िया प्रस्तुति. बधाई.
बहुत बेहतरीन . शुभकामनाएं.
रामराम.
पैसे वाकई वसूल हो गए....!!
बहुत सुन्दर. आम आदमी का यही हाल है.
वाह जी वाह आम आदमी का सुंदर वृतांत पेश किया हे आपने
Parsai ke yahan aise kai tukde milenge
देखिये वक़्त न तब बदला था न अब बदला .
behtreen post
गजल के शेरों के सहारे सुन्दर सामयिक विवेचन।
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एक साइंटिस्ट का दुखद अंत
परसाईजी की लेखनी को सलाम....! परसाई जी और ज्ञान चतुर्वेदी दोनों ही गजब का लिखते हैं ....!!
पैसा वसूल''''''''''''
आपकी गारंटी खाली नहीं गयी...लेकिन पढ़ने में पैसा तो लगा नहीं, इसलिए पैसा वसूल नहीं कहूंगा :)
वादा एक आस है, वादा विश्वास है।
जब तक है वादे पर भरोसा,
तब तक सासों में सांस है।
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अभिनय के उस्ताद जानवर
लो भई, अब ऊँट का क्लोन
आधा घंटा भारतीय लोकतंत्र के बहाने ख़राब हो गया..पैसे वापस मिलेंगे...?
election ke dino mein tumhare blog ka roop-rang bhi badal gaya VARSHA
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