यहां गूंजते हैं स्त्रियों की मुक्ति के स्वर,
बे-परदा, बे-शरम,जो बनाती है अपनी राह, कंकड़-पत्थर जोड़ जोड़,जो टूटती है
तो फिर खुद को समेटती है, जो दिन में भी सपने देखती हैं और रातों को भी बेधड़क सड़कों पर निकल घूमना चाहती हैं, अपना अधिकार मांगती हैं। जो पुकारती है, सब लड़कियों को, कि दोस्तों जियो अपनी तरह, जियो ज़िंदगी की तरह
6 comments:
very nice picture.
your welcome at my blog-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
जब बच्चे के पैर पिता के जूते में न आएं तब भी..." जी तब भी बच्चा मां बाप के लिये बच्चा ही रहै गा.
धन्यवाद
Kya bat hai !!
बहुत खूब, और राज भाटिया जी का कमेण्ट तो सोने पर सुहागा।
achchhi koushish hai.
So sad!
Post a Comment