22 October 2018

अब बदल गई पारो

देवदास की ‘पारो’
शरतचंद्र चटोपाध्याय के उपन्यास देवदास ने बॉलीवुड ही नहीं हिंदुस्तानी प्रेमियों के लिए जैसे एक चरित्र गढ़ दिया। यूं तो लैला मजनूं, सीरी फरहाद जैसे प्रेम प्रतीक जोड़ियां पहले से विद्यमान हैं। लेकिन शरतचंद्र के उपन्यास का नायक देवदास तमाम उदास और भटके हुए प्रेमियों का नायक बन जाता है। बल्कि इससे भी आगे देवदास प्रेमियों का दिल लगा मुहावरा भी है कि जैसे- अरे क्या देवदास जैसी हालत बना ली है, देवदास बने क्यों फिर रहे हो, ओ देवदास आइने में अपनी सूरत तो देखो आदि।


मुझे ऐसा लगता है कि शरत चंद्र के उपन्यास देवदास की नायिका पारो के साथ समाज ने बड़ा अन्याय किया है। पारो के किरदार को आज के वक्त की कसौटी पर रखकर समझने की नई कोशिश करनी चाहिए। उसे एक असहाय, अबला, कमज़ोर शख्सियत की तरह नहीं याद करना चाहिए, जिसकी तकदीर देवदास के फैसलों से बनती चली गई। बल्कि उपन्यास की नायिका पारो को उसके अपने फैसलों से परखा जाना चाहिए। पढ़ाई के लिए देवदास गांव छोड़ कर विलायत चल दिए तो देवदास के लिए इंतज़ार करने का फैसला पारो का अपना फैसला था। जो आसान तो कतई नहीं था। हिम्मत तो पारो की थी कि अपने से कहीं ज्यादा अमीर परिवार के लड़के को उसने दिल दिया। देवदास तो पढ़ने वास्ते घर छोड़ कर चल दिया लेकिन प्रेम की मिसाल तो पारो थी जिसने देवदास का इंतज़ार किया। क्या गांव में और लड़के न रहे होंगे, लेकिन पारो ने देवदास के अलावा किसी और को न चाहा। दिन रात देवदास-देवदास। फिर देवदास तो कलकत्तेवाली मशहूर नर्तकी चंद्रमुखी के दरवाजे पर भी पहुंच गया। पर क्या पारो ने ऐसा किया। नहीं। अपने प्रेम, अपनी उदासी, अपने फैसलों में  वो देवदास से कहीं ज्यादा मज़बूत थी।

चूंकि देवदास ने उपन्यास के अंत में अपने प्राण त्याग दिए तो सारी सहानुभूति ले बैठे। किसी ने पारो के बारे में सोचा क्या। फिर पारो पर क्या बीती होगी। उसने आगे का जीवन कैसे जिया होगा। जितना देवदास चाहता था पारो को, उससे कम तो पारो ने देवदास को न चाहा होगा। देवदास के पास तो छूट थी कि वो अमीर जमींदार परिवार का था और हमारी पारो एक लोअर मिडिल क्लास फैमिली की। अमीर-ग़रीब की खाई इतनी गहरी थी कि पारो की मां ने इस खाई को पाटने के वास्ते उम्र में कई साल बड़े अमीर जमींदार से उसकी शादी करा दी। उस जमींदार के पारो जितने बड़े तो दो बच्चे थे। अपने प्रेम की कुर्बानी दी थी पारो ने। दगा नहीं किया था देवदास की तरह। क्या पता था कि उसे अपनी ससुराल की चौखट पर पूर्व प्रेमी को प्राण त्यजते देखना था। शरतचंद्र ने क्लाइमेक्स तो क्या खूब तैयार किया। देवदास की पीड़ा दिखाई लेकिन पारो के संघर्ष को इस उपन्यास में वो जगह न मिली जो मिलनी चाहिए थी।


आज के समय के लिहाज से इन दोनों कैरेक्टर पर फिर से नज़र डाले जाने की जरूरत है। देवदास कमज़ोर था जो शराब के नशे में डूबता चला गया। पारो मजबूत थी जिसके आंसू पत्थर बनते चले गए। देवदास अपने सामंती पिता का विरोध करने की हिम्मत न जुटा सका। अपने पिता के बरक्स खड़ा होकर एक बार यह न कह सका कि मैं पारो से ब्याह करूंगा। पारो के प्यार की दास्तान की खबर उसके पति तक को थी मगर वह शिला की तरह डटी रही। उसने अपने प्यार से इन्कार न किया। देवदास परिस्थितियों का सामना न कर सका और हमारी पारो परिस्थितियों की आंधी में तिनके सी बिखरी नहीं। पारो के कदम डगमगाए नहीं। उसने शराब का सहारा नहीं लिया। वह किसी छत से नहीं कूदी। किसी नदी में छलांग नहीं लगाई। और तो और प्रेमी को अपने चौखट पर दम तोड़ते देखने का हौसला भी उसमें था। अगर यह सीन पलट जाता। देवदास की जगह पारो उसके चौखट पर जान देती तो शरतचंद्र के इस क्लासिक उपन्यास का क्या अंत लिखा जाता। क्या देवदास को फर्क पड़ता कि उसके महल के दरवाजे पर उसकी प्रेमिका ने देवा-देवा कहते हुए प्राण त्याग दिए। अगर देवदास की जगह पारो को गांव छोड़कर कहीं दूर भेज दिया जाता। तो देवदास अपनी इस प्रेमिका का इंतज़ार करते। क्या पारो किसी चंद्रमुखी सरीखे दूसरे नायक के पास चली जाती, तो देवदास के दिल में उसके लिए वैसा ही प्यार रह जाता। उदास प्रेमियों के नायक देवदास हैं तो हिम्मतवाली प्रेमिकाओं की नायिका है हमारी पारो।

17 May 2018

मेरी 6 साल की बेटी को ये पत्र






31 मई 2016
जब मेरी छह साल की बेटी सोलह की हो जाएगी, तो मैं उसे यह पत्र तोहफे के रूप में दूंगी। मैं उसे बताऊंगी कि बेटा जन्म देना तो आसान होता है लेकिन पालना मुश्किल। यूं तो शादी के बाद ही दफ्तर में महिलाओं के प्रति बाकि लोगों का रवैया बदल जाता है। लेकिन बच्चे के जन्म के बाद वे तरह तरह के हथकंडे अपना कर ये साबित करने की कोशिश करते हैं कि एक मां बनते ही एक औरत की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं और वे दफ्तर में अपने कार्य में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पातीं। मैंने ऐसे तमाम लोगों की सोच को ख़ारिज किया। जब तुम मेरे गर्भ में पांच महीने की थी मैं नाइट शिफ्ट करती रही। तुम्हारे पैदा होने के पांचवे महीने मैं दफ्तर में थी, सच कहती हूं तुम्हें छोड़ कर आने में कलेजा छलनी होता था, लगता था कि तुम्हारे साथ कितना अन्याय कर रही हूं, फिर सोचती थी कि जब तुम बड़ी होगी तो समझोगी कि तुम्हारी मां ने ये सब सिर्फ अपने करियर के लिए ही नहीं किया, अस्तित्व के लिए किया। जब तुम पढ़ रही होगी, कई इम्तिहान दे चुकी होगी और कई और इम्तिहान बाकी होंगे, तुम जानोगी की इस समाज में बराबरी का हक़ हासिल करने के लिए आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर होना कितना जरूरी है। मैं चाहूंगी कि तुम आत्मनिर्भर बनो। तुम्हे ढेर सारा प्यार।

04 May 2018

क्यों खायी तीसरी कसम हीरामन


 (दैनिक ट्रिब्यून के क्लासिक किरदार कॉलम में प्रकाशित)
फणिश्वरनाथ रेणु की कहानी तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम को पढ़ते हुए ऐसा कोई होगा जो हीरामन की सादगी और भोलेपन का कायल हो जाए। क्या ऐसे लोग भी होते हैं ज़माने में। इतनी सच्चाई तो हमें सिनेमाई ही लगती है।  रेणु की इस कहानी के कैनवस में लोकरंग बिखरे हुए हैं। कहानी पढते हुए दो बैलों के खनक कर चलने की आवाज़ कानों में गूंजने लगती है। लंबे हट्टे कट्टे दो सफेद बैल। कहानी में मेले की गूंज सुनायी पड़ती है। वे मेले जो हमारे बचपने की स्मृतियों का हिस्सा भर रह गए हैं। अब कहां वो मेले ठेले, मेले के वे झूले, वे खिलौनेवाले, गुब्बारेवाला, जलेबियां।
कहानी का मुख्य पात्र हीरामन अपने सफर के अनुभवों से दो कसमें तो खा चुका है। एक तो चोर बाज़ारी का माल लादने का और दूसरा बांस लादने का। इन दो कसमों तक तो पाठक दूर से हीरामन की बैलगाड़ी को छम छम करते आगे बढ़ते हुए देखते हैं। लेकिन जैसे ही कहानी की नायिका हीराबाई सवारी बनकर हीरामन की गाड़ी में बैठती है, पाठक भी इसके साथ ही हीरामन की बैलगाड़ी पर सवार हो जाते हैं। हीराबाई जैसी सवारी का आभास पाकर हीरामन के मन में गुदगुदी होनी शुरू होती है, उसकी गाड़ी मह-मह महक उठती है, घड़ी-घड़ी चंपा के फूल खिलने लगते हैं, पाठकों के मन में भी चंपा के फूल खिलने शुरू हो जाते हैं। पाठक डरते भी हैं कि क्या होगी वो तीसरी कसम, जिस पर मारा गया हमारा गुलफाम, हमारा हीरामन। जब चांदनी के एक टुकड़े में हमारा गाड़ीवान अपनी सवारी की एक झलक पाता है, उसे सब कुछ रहस्यमयी लगने लगता है तो क्या पाठक इस एहसास से बचे रह पाते हैं। नहीं।

हीरामन की बैलगाड़ी अपने सफ़र पर है और उसके साथ हम भी उन तमाम रास्तों को पार करते हैं, जिसमें कभी हीरामन बैलों को फटकार लगता है, तो कभी वो उनसे चलते रहने की गुहार लगाता है। रास्ते के लोग हीरामन से सवारी के बारे में पूछते हैं तो वह बेहद गंभीरता के साथ राहगीरों को टाल देता है, या किसी को भनक नहीं लगने देता कि उसकी गाड़ी में कोई लड़की सवार है। इतना समझदार है हमारा अनपढ गाड़ीवान। इस बात पर हम गर्व भी महसूस करते हैं। जिसकी दुनिया सिर्फ उसके बैलों तक सीमित है, उसे इतना पता है कि एक स्त्री से कैसे बात करनी है, वो बीड़ी सुलगाता है तो पहले पूछ लेता है कि आपको इससे गंध तो नहीं लगेगी न। अब तो दोस्ती हो गई है हमारे गाड़ीवान और उसकी सवारी के बीच। हीराबाई ने उसे मीता कहकर पुकारने की इजाजत भी ले ली है। हीराबाई के कुरते पर जो फूल छपे हैं, हीरामन को उनकी भी खूब महक आती है। इस पूरे सफ़र में वो उसकी गाड़ी में चंपा के फूलों की गंध रह रह कर उठती रहती है और वो अंगोछे से अपनी पीठ झाड़ता है, जब उसे झुरझुरी सी महसूस होती है।

इस कहानी में प्रवेश कर आज के माहौल से इसकी तुलना करें तो। सड़कों पर ट्रैफिक का शोर और गाड़ियों के तेज़ हॉर्न की आवाज़। चंपा के फूल क्या खिलेंगे, पेट्रोल-डीजल की गंध मिली हुई हवा, और इस सब से बचने के लिए बस आंखों को छोड़, सिर-मुंह-कान सब कस कर बांधे हुए हमारे आज के नायक-नायिका ही दिखाई देंगे।

खैर हम कहानी में वापस चलते हैं। हीरामन के मन में सतरंगा छाता धीरे-धीरे खिल रहा है। अजनबियों को देख वो टप्पर के परदे को गिरा देता है। चलते-चलते अचानक गाने लग जाता है। हीराबाई उसे देख कर मुस्कुराती है और वह फिर शरमा जाता है। कहानी में समय का पता तब चलता है जब सूरज को दो बांस ऊपर चढ़ जाता है या फिर दो बांस नीचे सरक जाता है। इस तरह समय की पड़ताल भी बडी अच्छी लगती है। हीरामन परदे के छेद से अपनी सवारी को देख लेता है और फिर गुनगुनाने लगता है। हीराबाई को महुआ घटवारिन का किस्सा सुनाते-सुनाते वो खुद सदमें में सा जाता है। हीराबाई को भी उस पर पूरा भरोसा हो चला है और वह पूरे इत्मीनान के साथ इस सफ़र पर है। और क्या ही लगता है जब हमारा ये भोला भाला नायक बात बात पर इस्स बोलता है। बॉलीवुड की हिरोइन ऐश्वर्या राय अपने पूरे करियर में ऐसे इस्स्स बोल पायी होगी जैसे हमारा हीरामन लजाने पर इस्स्स-इस्स्स करता है।

अपनी मंजिल पर पहुंचकर गाड़ीवान खुश होते हैं और हीरामन का ह्रदय भारी हो जाता है। अब हीराबाई उसकी सवारी नहीं रही, उस मेले की शान है, सब उसी के बारे में बात कर रहे हैं। हीरामन और उसके दोस्तों को भी उसने मेले में आने का पास दिलवा दिया। पूरे सफ़र के दौरान अजब सी खुशबू में लरजता हुआ हीरामन अपनी पूरी कमाई संभालने के लिए हीराबाई को दे देता है, उसे डर है कि कहीं मेले में कोई उसकी पॉकेट मार ले। जिस थैली में हीराबाई ने उसे पैसे पकड़ाए थे, वही थैली अब हीराबाई के पास उसकी अमानत है। इसी थैली की वजह से वो आखिरी बार हीराबाई से मिल पाता है। मेला छोड़कर जाते हुए रेलवे स्टेशन पर वो हीरामन का इंतज़ार करती है। थैली उसके सुपुर्द कर नायिका की जान में जान आती है। आखिर एक गाड़ीवाले की गाढ़ी कमाई जो थी। हमारी नायिका भी बेहद ईमानदार है। अब भी अगर वो ट्रेन में बैठी तो ये गाड़ी तो छूट जाएगी, हीराबाई चली ही जाती है। हीरामन उसे ट्रेन के गुजरने के आखिरी दृश्य तक देखता रह जाता है। पाठकों के मन में भी एक आह भरी इस्स्स निकलती है। बहुत तपड़ कर हीरामन अपनी तीसरी कसम खाता है कि अब कभी किसी लड़की को अपनी गाड़ी में नहीं बिठाएगा। हमारा नायक बड़े भारी दिल से अपनी खाली बैलगाड़ी को लेकर वापस गांव की ओर लौटता है और पाठक भी यहां उससे विदा लेते हैं। पाठकों केे दिल में आज भी हीरामन के लिए ढेर सारा प्यार है और उसकी तीसरी कसम का दर्द भी।
(चित्र गूगल से साभार)