देवदास की ‘पारो’
शरतचंद्र चटोपाध्याय के उपन्यास देवदास ने बॉलीवुड ही नहीं हिंदुस्तानी प्रेमियों के लिए जैसे एक चरित्र गढ़ दिया। यूं तो लैला मजनूं, सीरी फरहाद जैसे प्रेम प्रतीक जोड़ियां पहले से विद्यमान हैं। लेकिन शरतचंद्र के उपन्यास का नायक देवदास तमाम उदास और भटके हुए प्रेमियों का नायक बन जाता है। बल्कि इससे भी आगे देवदास प्रेमियों का दिल लगा मुहावरा भी है कि जैसे- अरे क्या देवदास जैसी हालत बना ली है, देवदास बने क्यों फिर रहे हो, ओ देवदास आइने में अपनी सूरत तो देखो आदि।
मुझे ऐसा लगता है कि शरत चंद्र के उपन्यास देवदास की नायिका पारो के साथ समाज ने बड़ा अन्याय किया है। पारो के किरदार को आज के वक्त की कसौटी पर रखकर समझने की नई कोशिश करनी चाहिए। उसे एक असहाय, अबला, कमज़ोर शख्सियत की तरह नहीं याद करना चाहिए, जिसकी तकदीर देवदास के फैसलों से बनती चली गई। बल्कि उपन्यास की नायिका पारो को उसके अपने फैसलों से परखा जाना चाहिए। पढ़ाई के लिए देवदास गांव छोड़ कर विलायत चल दिए तो देवदास के लिए इंतज़ार करने का फैसला पारो का अपना फैसला था। जो आसान तो कतई नहीं था। हिम्मत तो पारो की थी कि अपने से कहीं ज्यादा अमीर परिवार के लड़के को उसने दिल दिया। देवदास तो पढ़ने वास्ते घर छोड़ कर चल दिया लेकिन प्रेम की मिसाल तो पारो थी जिसने देवदास का इंतज़ार किया। क्या गांव में और लड़के न रहे होंगे, लेकिन पारो ने देवदास के अलावा किसी और को न चाहा। दिन रात देवदास-देवदास। फिर देवदास तो कलकत्तेवाली मशहूर नर्तकी चंद्रमुखी के दरवाजे पर भी पहुंच गया। पर क्या पारो ने ऐसा किया। नहीं। अपने प्रेम, अपनी उदासी, अपने फैसलों में वो देवदास से कहीं ज्यादा मज़बूत थी।
चूंकि देवदास ने उपन्यास के अंत में अपने प्राण त्याग दिए तो सारी सहानुभूति ले बैठे। किसी ने पारो के बारे में सोचा क्या। फिर पारो पर क्या बीती होगी। उसने आगे का जीवन कैसे जिया होगा। जितना देवदास चाहता था पारो को, उससे कम तो पारो ने देवदास को न चाहा होगा। देवदास के पास तो छूट थी कि वो अमीर जमींदार परिवार का था और हमारी पारो एक लोअर मिडिल क्लास फैमिली की। अमीर-ग़रीब की खाई इतनी गहरी थी कि पारो की मां ने इस खाई को पाटने के वास्ते उम्र में कई साल बड़े अमीर जमींदार से उसकी शादी करा दी। उस जमींदार के पारो जितने बड़े तो दो बच्चे थे। अपने प्रेम की कुर्बानी दी थी पारो ने। दगा नहीं किया था देवदास की तरह। क्या पता था कि उसे अपनी ससुराल की चौखट पर पूर्व प्रेमी को प्राण त्यजते देखना था। शरतचंद्र ने क्लाइमेक्स तो क्या खूब तैयार किया। देवदास की पीड़ा दिखाई लेकिन पारो के संघर्ष को इस उपन्यास में वो जगह न मिली जो मिलनी चाहिए थी।
आज के समय के लिहाज से इन दोनों कैरेक्टर पर फिर से नज़र डाले जाने की जरूरत है। देवदास कमज़ोर था जो शराब के नशे में डूबता चला गया। पारो मजबूत थी जिसके आंसू पत्थर बनते चले गए। देवदास अपने सामंती पिता का विरोध करने की हिम्मत न जुटा सका। अपने पिता के बरक्स खड़ा होकर एक बार यह न कह सका कि मैं पारो से ब्याह करूंगा। पारो के प्यार की दास्तान की खबर उसके पति तक को थी मगर वह शिला की तरह डटी रही। उसने अपने प्यार से इन्कार न किया। देवदास परिस्थितियों का सामना न कर सका और हमारी पारो परिस्थितियों की आंधी में तिनके सी बिखरी नहीं। पारो के कदम डगमगाए नहीं। उसने शराब का सहारा नहीं लिया। वह किसी छत से नहीं कूदी। किसी नदी में छलांग नहीं लगाई। और तो और प्रेमी को अपने चौखट पर दम तोड़ते देखने का हौसला भी उसमें था। अगर यह सीन पलट जाता। देवदास की जगह पारो उसके चौखट पर जान देती तो शरतचंद्र के इस क्लासिक उपन्यास का क्या अंत लिखा जाता। क्या देवदास को फर्क पड़ता कि उसके महल के दरवाजे पर उसकी प्रेमिका ने देवा-देवा कहते हुए प्राण त्याग दिए। अगर देवदास की जगह पारो को गांव छोड़कर कहीं दूर भेज दिया जाता। तो देवदास अपनी इस प्रेमिका का इंतज़ार करते। क्या पारो किसी चंद्रमुखी सरीखे दूसरे नायक के पास चली जाती, तो देवदास के दिल में उसके लिए वैसा ही प्यार रह जाता। उदास प्रेमियों के नायक देवदास हैं तो हिम्मतवाली प्रेमिकाओं की नायिका है हमारी पारो।