जी चाह रहा था पोटली
में इस आवाज़ को बांध लूं, सहेज लूं, जब जी चाहा, पोटली खोली, आवाज़ सुनी, थोड़ा
सुकुन बटोरा और पोटली फिर संभाल कर रख दी।
ये बहुत सारे
कीट-पतंगों, झींगुर, जुगनू समेत रात के यात्रियों की आवाज़ थी। एक लंबी धुन की
तरह। जो रात भर अनवरत बजती रहती है। खूब पेड़-पौधे रहते हो जहां ये आवाज़ आती ही
है। पेड़-पौधों, जंगली घास, कुछ झाड़-झंखाड़ के बीच अपने रहने के लिए जगह बना लेते
हैं बहुत सारे छोटे-छोटे जीव। दिन में हमारे शोरोगुल के बीच इनकी आवाज़ दब जाती
है। लेकिन रात के सन्नाटे में खूब गूंजते हैं ये। कितने जुगनू, कितने झींगुर,
चीटें-चीटियां, मकड़ियां, गिरगिटें, मेंढकें, लाल-लाल कीड़े ये सब एक सुर में गाते
हों जैसे। इन सबकी आवाज़ों को मिलाकर रात के सन्नाटे में ये आवाज़ तैयार होती है।
कुदरत ही इसकी संगीतकार है। इतने सारे वाद्यंत्र जुटे हैं इसके लिए। झींगुर अपनी
तान दे रहा, जुगनू अपनी बात गुनगुना रहा, मेढक भी कुछ टर्राने आ गया, लाल कीड़े
क्या कह रहे होंगे। रात के इस पटल पर मेरे सामने लीची के पेड़ हैं। कुछ आम के पेड़
हैं। चीकू, आंवला, नींबू के पेड़ हैं। इनके नीचे ढेर सारी जंगली घास। झाड़-झंखाड़
है। मुझे ये झाड़झंखाड़ भी पसंद हैं। पेड़ पौधे अपने जंगलियत में ही पसंद हैं।
किसी गार्डन में करीने से काढ़े हुए पेड़ नहीं। कांट-छांट कर जिन्हें आकार दे दिया
गया हो। रात के इस छंद में जंगली घास की फुसफुसाहट भी शामिल होगी। गाती हो
शायद..हम कहीं भी उग सकती हैं, हम धरती के सबसे करीब हैं, हम नहीं रौंदी जा सकतीं,
हमारी कोमल लटें सबसे ज्यादा ताकतवर हैं। हर तूफान का हम डटकर सामना करती हैं। हां
हम जंगली घास हैं। वहीं लीचियों को चट करने आए कीड़े भी अपनी आवाज़ छोड़ रहे
होंगे। कुछ बुदबुदा रहे होंगे। लीचियों का रस निचोड़ रहे होंगे। आम के पेड़ में
घोसला बनाकर रह रही चिड़िया आंखें मूंद कर सो रही होगी। रात में कुनकुनाते अपने
नन्हे बच्चों को चीं-चीं कर डांट लगा रही होगी। हवा घास को छूते हुए पेड़ों के बीच
घुसकर कुछ सरसराहट पैदा करती है। हवा के संगीत पर फिर बज उठते होंगे सारे
कीड़े-मकोड़े। एक साथ फिर सब लेंगे द्रुत गति में अलाप। उनकी संगीत सभा को अचानक तोड़ देता है सोने की कोशिश
कर रहा कुत्ता। भूंकता है आसमान की ओर देखते हुए। जाने क्या आहट पायी, जाने क्या
देखा। रात की तंद्रा को भंग करती हुई, गुजरती हुई गाड़ियों की आवाज़ भी आती है,
कोई देर रात लौट रहा है अपने घर को। सबकुछ एक बार फिर शांत होता है और फिर
धीरे-धीरे बजने लगता है ये जंगली संगीत। आसमान में छिटके तारे बेआवाज़ संगीत की
तरह ही टिमटिमाते हों जैसे। धरती पर ये रात का राग है। रात की कोई लंबी कविता हो
जैसे।
बरसाती रात की इस
सभा की दर्शक हूं मैं। देहरादून की इस रात में मैं इस आवाज़ पर अपने कान रखती हूं।
देरतक इसे सुनने की कोशिश करती हूं। दिल के किसी कोने में एक कमरा बनाती हूं जहां
इन आवाज़ों को सहेजा जा सके। सामने धुंधलाती पहाड़ियां देख रही हूं। दिल बेचैन
होता है। अफसोस जताते हुए कि फिर लौटना है तेज़ भागते अपने महानगर की ओर। जहां इस
सब के लिए वक़्त ही नहीं। जहां सड़कें हर समय भागती रहती हैं। गाड़ियों और उनके
हॉर्न की तेज़ आवाज़ सड़क को ठहरने नहीं देती। आंखों में सपने मसलते हुए जहां आ
पहुंचे हम। और ऐसी जगह के वासी हो गए जहां हमेशा अजनबी की तरह रहना है। एक बड़े
सराय की तरह ये महानगर।
दिल्ली-नोएडा-गाजियाबाद
के ईर्दगिर्द पंद्रह साल होने को आए। इसके बावजूद ये अजनबियत अभी गई नहीं है। यहां
रात में सिर्फ शोर सुनायी देता है। एयर कंडीशन, कमप्यूटर, फ्रिज और टीवी समेत तमाम
इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की आवाज़ें जहरीले शोर की तरह हमारे ईर्दगिर्द हर समय बजती
रहती हैं। रात में सड़क पर भागती गाड़ियों के दनदनाते हॉर्न की आवाज़ें डरावनी
लगती हैं। देररात कभी हॉर्न की तेज़ आवाज़ सुनायी दे जाए तो हादसे का डर लगता है।
इस शोर शराबे में दब जाती है किसी चिड़िया की तान। कबूतरों की गुटरगूं ही बचीखुची
है यहां। हां देर रात कुत्ते यहां भी भूंकते हैं। जाने क्या सोचते हों वो भी। कंक्रीट
के जंगल में कैसे आ गए हम। और आ जो गए तो ऐसा भी नहीं कि सबकुछ छोड़छाड़ फिर निकल
जाएं। ऐसा करने के लिए भी हिम्मत चाहिए।
(चित्र गूगल से साभार)